Wednesday, December 7, 2011

कहां है मीडिया सर्वोकार ?


चौथे खम्भे का काम अब 4सी (क्राइम, क्रिकेट, सिनेमा और सेलिब्रटी) से पूरा नहीं हो पा रहा। 6सी का कांसेप्ट आ रहा है। दो अन्य है "करप्सन और कारपोर्टेजाइशन" 


एलपीजी (लिब्रेलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन) और सूचना विस्फोट के इस दौर में कोई कहता है कि सूचना में भ्रष्टाचार नहीं तो अविश्वासनीय ही है। भारत के पिछले कुछ दशक के आकड़ों को देखे तो साफ तौर पर जाहिर होता है कि जहां अन्य देशों में प्रिंट मीडिया का अस्तित्व खतरे में नजर आने लगा है वही भारत में पाठकों की संख्या लगातार बढ़ रही है। इलेक्ट्रानिक मीडिया की अपनी चमक बरकरार है। रेडियो  अपने मन के हिसाब से बज रहा है। तो बेव में भी समाचार विचार की धूम मचने लगी है। मीडिया के तेवर तो वैसे ही है बस बदला है तो उनका अंदाज और विषय। जिसे समय की मांग भी कह सकते हैं। तात्कालिक आकड़ों पर नजर डाले तो देश में 77,600 अखबार विभिन्न भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होते हैं। 58 करोड़ पाठकों की संख्या है। मतलब आधी आबादी अभी पढ़ने की आदि नहीं है। 550 चैनल है, जिनमें से 250 अभी अधर में हैं। 13 करोड़ 80 लाख लोगों के घरों में टी.वी. है। इनके साथ ही 50 हजार स्थानीय टी.वी ऑपरेटर है। ऐसे में अगर मीडिया के एक भी माध्यम में भ्रष्टाचार का कीड़ा लगा तो उसे पूरे मीडिया तंत्र में फैलते देर नहीं होगी। हुआ भी कुछ ऐसे ही राजनीति से शुरू हुआ भ्रष्टाचार आज समाचार विचार को निगल रहा है। आज की भाग दौड़ भरी जिंदगी में समाचार को भी व्यक्ति मनोरंजन के तरह ही देखने लगा है। उसे दो-चार लोगों के मरने वाली घटना से कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। जब तक बड़ी तबाही न हो। क्योंकि यह भी आदत बन गई है। गाहे बजाहे ऐसी घटनाएं तो रोज ही होती है। कौन सा कोई सगा है हमारा। अब पड़ोसी के घर से धुंआ क्यों आ रहा है, इसकी चिंता फायरब्रिगेट वाले करें। नेता या पत्रकार तो दौरे पर ही नजर आएंगे। इतने के बावजूद भी इक्के दुक्के पत्रकार मिल ही जाएंगे, जो आज भी पत्रकारिता को जीवित रखे हैं। अब मजबूरी हो या हमारा स्वार्थ, नैतिकता तो धरासाई हो ही रही है। 

पेड न्यूज का कानसेप्ट भी भ्रष्टाचार के कारण ही मीडिया में आया है। जिसे जब जो भी खरीदना या बेचना है, सभी स्वतंत्र है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में अभिव्यक्ति की स्वतत्रंता सबको मिली हुई है। मीडिया को देश का चौथा स्तंभ कहा जाता है क्यों कि यह सरकार और आम जनता के बीच सेतु का काम करते है। समाज के हितों की रक्षा के लिए भी कार्यरत रहते हैं। अफसोस इस बात का है कि चौथे खम्भे का काम अब 4सी (क्राइम, क्रिकेट, सिनेमा और सेलिब्रटी) से पूरा नहीं हो पा रहा। 6सी का कांसेप्ट आ रहा है। दो अन्य है "करप्सन और कारपोर्टेजाइशन" यह बात अलग है कि लोकपाल की मांग पहले लगभग 50 दभा की गई होगी। लेकिन अन्ना आंदोलन की वजह से यह व्यापकता के साथ देश ही नहीं विदेश तक भी पहुंचा। इसमें सबसे ज्यादा रोल मीडिया का ही रहा। कारण साफ है 6सी और टीआरपी। इन सब के बावजूद भी मीडिया को हम पूरी तरह से भ्रष्ट नहीं कह सकते हैं। कुछ पत्रकार और संपादक है जो पूरी सच्चाई के साथ काम करना चाहते हैं। उन्हें भ्रष्ट करता है बाजार और ऐलिट वर्ग जो कतई यह नहीं चाहेगा कि मीडिया व्यापार में थोड़ा भी नुकसान हो। 
आज रेडियों की  पहुंच 99 प्रतिशत तक हो गई है। भारत का दुनिया में दूसरा स्थान है समाचार पत्रों की रोजाना प्रकाशित प्रतियों को लेकर। चीन में  इसकी संख्या 13 करोड़ है तो भारत में 9 करोड़ है। निजीकरण के दौर में भारत के 294 शहरों में 839 रेडियों एफएम शुरू होने वाले हैं। सोशल नेटवर्किंग तो मीडिया की सारी दीवारों को तोड़ उपभोक्ता, पाठक या दर्शक वर्ग को जागरूक बनाने का काम तेजी से कर रहा है। लेकिन वहीं दूसरी तरफ समाज में अब हिंसा और क्रुरता में भी शासकों को मनोरंजन ही नजर आने लगा है। पूंजीवाद की दुनिया में साहित्य, कला और सूचना कमाई का जरिया बन गए हैं। दशर्क उपभोक्ता बन गया है। देश चलाने वाले जनता की संवेदनाओं के साथ खेल रहे हैं। इसमें उनका साथ दे रही है मीडिया जो संवेदना, जिज्ञासा, कौतुहल और मनोविज्ञान को अपना हथियार बना देश की जनता को ही पागल बना रही है। यह तो सोचने वाली बात है ही कि मनुष्य राजनेताओं के लिए सिर्फ मतदाता और बाजार के लिए सिर्फ उपभोक्ता ही समझा जाता है। इसके अलावा कुछ नहीं। ऐसे में भ्रष्टाचार की लगाम के लिए छोटा प्रयास और किसी भी कारण से उसमें मीडिया का साथ देना। शायद फिर से हमें उस पत्रकारिता की तरफ मोड़ सके जो आजादी के समय थी। समाज की प्रत्येक व्यक्ति की आजादी की पत्रकारिता होनी चाहिये। आज हम तरक्की तो कर रहे हैं। लेकिन अपने नैतिकता को खत्म कर के। भ्रष्टाचार और नैतिकता पर देश में मीडिया में लोग प्रवचन देते रहते हैं यह जानते हूए भी कि भारत पूरे विश्व में भ्रष्टाचार के मामले में तीसरे नंबर पर है। 

वर्तमान समय में मीडिया इस मुलभूत प्रश्न को कैसे पेश करती है? यह जानाना भी रोचक है। आज की मीडिया और उनके पत्रकार दोनों जनता को पुचकारने में लगे रहते हैं। जैसे इनसे ज्यादा हितैसी तो कोई हो ही नहीं सकता। फिर भी यह  नहीं कह सकते कि पत्रकारिता बची ही नहीं है। जो पत्रकार बचे हैं सच के साथ वो बाहरी दुनिया में जाने से कतराते हैं, कहीं वह भी बाकी सब की तरह उन्हीं के रंग में न रंग जाए। एलिट वर्ग अपनी मानवीय संवेदनाएं खोता जा रहा हैं। गांवो को तो तब्बजुम ही नहीं दिया जाता। पत्रकारिता की खबरे गांव में बसे भारत से ही निकलती है इसलिए इस ओर पत्रकारों को ध्यान देना चाहिए। पत्रकारिता के मूल्यों के संकट आ चुका है। पत्रकार न ही व्यवसायिक दक्ष हैं न ही कुशल। उनके प्रश्न और प्रस्तुति केवल पब्लिसिटी के लिए होते हैं। पत्रकारों को भारतीय अधिनियम की धाराओं और कानून का ज्ञान न के बराबर है जिससे पत्रकारिता दिशाहीन हो जा रही है। चाहे सत्ता हो या प्रशासनिक व्यस्था या कोई संस्था  व्यक्ति कुर्शी पर बैठ जाता है तो वह निर्णय भी अपने अनुसार ही लेता है। निर्णय की यह छुट और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चलते ही सही गलत का भान न करते हुए वह कभी ऐसे काम भी कर जाता है कि न चाहते हुए भी वह मानव जाति का दुश्मन बन जाता है। जरा सोचिए, अंग्रेजो के समय के कानून आज तक चल रहे हैं। जिसका खामियाजा भूगत रही है आम जनता। यदि उनकी भूमिका का दायरा सिमित कर दिया जाए तो भ्रष्टाचार पर अंकुश लगया जा सकता है। विभिन्न राजनीतिक पाटिर्यों ने देश की हर चींज को बाजार में लाकर खड़ा कर दिया। आज तो भ्रष्टाचार से सब के पास पैसा या कह ले काला धन हो गया। मंत्री, अफसर, मीडिया, न्यायपालिका, कार्यपालिका, सेना, सांसद, उद्योगपति सभी आज भ्रष्टाचार में रंगे नजर आ जाएंगे। आज जो चीजे अच्छी बताई जा रही है वो बाजार में हैं। गाँधी की फोटो लगा कर, ईमानदारी का ढोंग किया जाता है। लेकिन उनकी नीतियों को अपनाने से कतराते हैं। 
अटपटी और चटपटी खबरें मीडिया की शोभ बढ़ा रहे हैं। पूरा का पूरा पेज या समय ही राजनीतिक पार्टियां खरीद लेती है। पार्टीयों और मीडिया का गटबंधन 100   साल से भी ज्यादा किसी भी पार्टी को देश पर राज करवा सकता हैं। पटना में देश के माने युवराज जाते हैं और खबर बनती है की लड़किया उनको देख कर चिल्ला रही थी जैसे की कोई हीरों हो। पत्रकार उसी को हेडलाइन बनाने में व्यस्त हो जाते हैं। लोकतंत्र के लिए तो जरूरी है वोटो के रूप में समर्थन पाना है वो पाने के लिए चाहे मीडिया को क्यों न भ्रष्टाचार में लाना हो, सब होगा। 
जब सच के लिए कोई जगह न बचती नहीं दिखी तो ब्लॉग लिख कर ही सच्ची पत्रकारिता की अलख जगानस शुरू हो गया। सही है राह कोई भी हो इरादा नेक होना चाहिए। नरेगा घोटाला, चारा घोटाला, लवासा घोटाला, अनाज घोटाला, चीनी घोटाला, राजमार्ग घोटाला, कॉमनवेल्थ घोटाला, संसद घोटाला, आदर्श घोटाला, बैंक घोटाला का सच छुपाने में मीडिया भी सबका का साथ बकायदा दे रही है। तहलका का सलेक्टिवली रिपोर्टिंग का सच, पत्रकारों के पदासिन होने का सच, नेपाल को मओवादियां के हाथो में सौप देने का सच, संसद में नोट कांड के सच पर, क्या सब मीडिया और समाज से छुपा हैं या हम जान कर अपनी आंखे बंद किए हुए हैं। क्यूँ अफजल और कसाब को अभी तक फंसी नहीं हुई है। अभी हल ही में आई  "बोल"  फिल्म मीडिया के लिए अच्छा उदाहरण है।
मीडिया खुद पर लगाम लगाने की बात करता है। क्या यह संभव है। भ्रष्टाचार जहां विकृतियों को जन्म देता है। वहीं वो गरीब को और भी गरीब बनाता है। सरकार जिस बेशर्मी के साथ भ्रष्टाचार को पनाह दे रही है और सी बी आइ, आयकर विभाग भी बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं। कभी तो वो समय आएगा ही जब सब जग जाहिर होगा। भ्रष्टाचार कर आचार देखने को मिलेगा। तब और भी चटकारे लेगी यह मीडिया। सभी मामलो में सरकार और मीडिया को भ्रष्टाचार को एक नजर से देखना चाहिए। सरकार मीडिया का मुह बंद रखने के लिए जो विज्ञापन देती है वो भी हमारे आम जनता मध्यम वर्ग की कमाई के होते हैं। मीडिया वाले क्या करते  हैं  उनका हिसाब जनता या सरकार के पास क्यों नहीं होता हैं। अन्ना दल के सदस्यों को बारी बारी निशाना बनाया जाना। यह  सिर्फ राजनीतिक सामाजिक आंदोलन का हिस्सा नहीं है बल्कि राजनीति और मीडिया तंत्र और समाज के बीच जो लड़ाई चल रही हैं। उसमें समाज के हार के रूप में भी देख सकते हैं। लोकपाल से भ्रष्टाचार पूरी तरह खत्म भले ही न हो, लेकिन वह सवालों की जबाबदेही के लिए, सूचना का अधिकार कानून की ही तरह एक कारगर हथियार जरूर बन सकता है। अन्ना दल को अब वक्त का इंतजार करने के साथ ही आगे बढने की जरूरत हैं। नहीं तो अंत का पूर्ण अंत करने में एलिट वर्ग को देर नहीं लगेगी। 

आज देश की आजादी के बावजूद भी क्या बेगुनाहों, मजबूरों के साथ इंसाफ हो रहा है, मजदूरों को उचित मजदूरी मिल रही है, बच्चों का भविष्य उज्ज्वल है और न जाने ऐसे ही कितने सवाल हैं जिसका जवाब है न मीडिया के पास है न सरकार के पास। इस देश में अमीर और भी अमीर होता जा रहा है और गरीब, गरीब होता जा रहा है। सर्वशिक्षा अभियान से बच्चों के किताबें और खाना की व्यवस्था तो हो गई है। लेकिन क्या आज ऐसे स्कूल नहीं है, जहां बच्चों के लिए आने वाला राशन किसी और के पास जाता हो? देश में बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, मजदूरी कर रहे हैं। सबसे ज्यादा परेशान युवा हैं। पढ़ सका वो भी, और जो न  पढ़ सका वो भी। नौकरी के लिए दर दर भटक रहा है, रिश्वतों के बिना नौकरी लगना असंभव सा ही हो गया है। सरकार ने एक न्यूनतम मजदूरी तय कर रखी है मगर करोड़ों की संख्या में ऐसे नौकरीपेशा हैं जिन्हें सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी से कम पैसा मिलता है। तनख्वाह इतनी होती है कि एक वक्त ही पेट भर खा पाते हैं तो अगले वक्त का सोचते हैं । यही हाल है पत्रकारों का भी। आए दिन ऐसी खबरें सुनने को मिलती हैं की फलां गांव में फलां व्यक्ति ने गरीबी से तंग आकर जान दे दी। हजारों टन अनाज रखे-रखे सड़ जाता है, तो कहीं भूख से किसी की मौत हो जाती है। शर्म की बात नहीं तो और क्या है। किसानों के देश में किसानों के साथ ही धोखा हो रहा है। उनकी जमीन छीनी जा रही है। कहा सो जाती है मीडिया ऐसी खबारों के समय। नेताओं की यात्रा किसान की मौत से ज्यादा जरूरी है। आज हर तरफ से भ्रष्टाचार की खबरें आ रही हैं। जिसे जब मौका मिला उसने देशवासियों को लूटा है। हमारे देश में बुद्धिजीवियों  की कमी नहीं है। मगर अधिकतर या तो दिखते ही नहीं या फिर उनसे सिर्फ उन्हीं लोगों को लाभ होता है जो दांव पेंच में माहिर होते हैं। जो गरीब हैं उन्हें इंदिरा आवास का घर नहीं मिल रहा, तो मीडिया का पूरा घराना  हैं। गरीबों का नाम बीपीएल में नहीं है और कार्ड के मजे दूसरे ही ले रहे हैं। भूख से लोग मर रहें है, किसान खुदकुशी कर रहें है, बच्चियों को कोख में ही मार दिया जा रहा है, बाल मजदूरी हो रही हैं। ऐसी परिस्थिति में कहा है आजादी मीडिया और देश दोनों की। क्या गांधी जी का सपना कभी पूरा होगा? पत्रकारिता  पीत फिर प्रेत अब पेज-3 में तब्दील हो गई है। पी से पब्लिक का  तो कही नामोनिशा नहीं है। बेईमानी इतनी ज्यादा हावी हो गई है कि इमानदारी के लिए जगह ही नहीं बचती है, ऐसे में मिडिया में भ्रष्टता वाकई खटकती है | क्योंकि पूरा माकन खम्भों पर ही टिका होता है| एक का प्रभाव दूसरे पर पड़ने लगता है| भारत में मीडिया कि स्थिति में अभी सही मायने में  और  परिपक्वता कि जरूरत है| उदाहरण में सहारा समूह ने भ्रष्टाचार कि अपनी एक गलत खबर के लिए 9 साल बाद क्षमा मांगी|  जरुरत है मीडिया को सच्चाई से अवगत करते हुए नींद से जगाने की |

सुषमा सिंह 

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