Thursday, October 18, 2012

अधिकारों से वंचित करता केन्द्रीयकरण


सुषमा सिंह
ग्राम स्वराज विषय पर  मेघनाथ जी से हुई बातचीत 

ग्राम स्वराज आज भी महत्वपूर्ण है। मेरा मानना है कि विकेन्द्रीकरण हमें इन्सानियत का रास्ता दिखाती है जो केन्द्रीकरण फांसीवाद का। एफडीआई या वालमार्ट क्या है? केन्द्रीय कंपनी केन्द्रीय फायदे के लिए। गांव से आने वाला उत्पाद सबके लिए लाभप्रद होता है। उदाहरण के तौर पर अमूल को लिया जा सकता है जो सहकारिता के माध्यम से विकेन्द्रीकरण से केन्द्रीकरण तक आता है। केन्द्रीकरण की ताकत भी भ्रष्टाचार का कारण है। इसमें बीच में मिलने वाले हिस्से की वजह से विकेन्द्रीकरण को बढ़ावा नहीं दिया जा रहा है। पंचायती राज की बात करें तो आज तक सरकार पेसा पंचायत एक्सटेंसन टू सिडयूल ऐरिया एक्ट को लाने के लिए तैयार नहीं है। पंचायत को अधिकारों से वंचित रखा गया है। झारखंड जैसे नये राज्यों में भी पंचायत के हाथ बंधे हुए ही है। अगर इनके पास निर्णय लेने का अधिकार हो तो यह गांव आर्थिक के साथ ही विचार की दृष्टि से भी ऊपर उठ सकते हैं। इसके अभाव में यह सिर्फ गुलाम बन कर रह जाएंगे। 

शिक्षा आज मशीनीकृत और केन्द्रीकृत हो कर रह गई है। अगर हम इतिहास की बात करें तो वह भी हमें केन्द्र के अनुसार ही बताए जाते हैं। विकेन्द्रकरण होने पर हर छोटी-बड़ी जगह और व्यक्ति का इतिहास हमारे सामने होता है। तक हम गांव, जिला, राज्य और देश सभी का इतिहास जान पाते हैं। सिर्फ गिने चुने नाम या जगहों के नहीं। उसी तरह भूगोल में भी हम देश-विदेश के नदियों के नाम तो जान लेते हैं। लेकिन अपने गांव के पास में बहने वाली नदी का नाम नहीं जान पाते हैं। केन्द्रीकरण के कारण किसान का उगाया अनाज तो खाते हैं लेकिन खेती-बाड़ी के बारे में जानने की इच्छा नहीं रखते हैं। चीन ने तो एलोपैथिक दवाओं को बढ़ावा दिया। जबकि हम आयुर्वेद को भूलाते जा रहे हैं। अंग्रेजी दवाओं पर निर्भर होने लगे हैं। 
योजनाएं गांवों के लिए बनाई तो जाति है लेकिन एसी बंद कमरों में गांव की पृष्ठभूमि को कैसे समझा जा सकता है। खेती की योजना जिले स्तर पर भी भिन्न- भिन्न हो सकती है। तरीका क्या होगा यह बात अहम है। केन्द्रीयकरण को बिल्कुल से नकार देना भी सही नहीं है क्योंकि जातिवाद और खाप पंचायत जैसी समस्या गांव में ही पाई जाती है। ऐसी रूढ़ीवादिता के खात्मे की जरूरत है। 
अंबेडकर जी ने केन्द्रीय ढांचे में कुछ बातों पर ध्यान नहीं दिया फिर भी वह सही है। ग्राम स्वराज में कुछ समस्याएं तो है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है। लेकिन सामाजिक आंदोलन से तोड़ा जा सकता है। जैसे सती प्रथा को उठाना केन्द्रीय आंदोलन था। विकेन्द्रीयकरण में करूतियों को हटाना आवश्यक है। जिसमें केन्द्रीय समाजिक आंदोलन से बदलाव लाया जा सकता है। 
हाल ही में नया जंगल कानून आया है। जिसमें क्षेत्र में लोगों को बसाने की बात की गई है। जबकि इस समस्या का समाधान पंचायत स्तर पर भी किया जा सकता था। आज हमारे नेता, प्रतिनिधि इन्सान से रिश्ता रख ही नहीं पाता है। वह सिर्फ स्वार्थ और सत्ता में निहित हो जाता है। गांव के बीच केन्द्र में गया व्यक्ति भी गांव के बारे में नहीं सोच पाता है। इससे बड़ी बिडम्बना और क्या हो सकती है। आज सत्ता और जनता के बीत की दूरी बढ़ती जा रही है। दिल्ली में बैठा व्यक्ति जो सिर्फ बस्तर के बारे में सुना हो वह उसके बारे में क्या जान सकता है और निर्णय ले सकता है कि वहां क्या होना चाहिए क्या नहीं। विधानसभा में बैठ कर गांव के विकास की बाते तो हो सकती है लेकिन वास्तविकता में ग्रामीण विकास के लिए विकेन्द्रीकरण होना चाहिए। गावं का मुखिया अपने गांव के लोगों से ऐसा रिश्ता रखता है जो केन्द्र में शासित सरकार का नहीं हो सकता। गांव की पंचायत का फैसला करने वाला उनके गीच का होता है। आस-पास के 5-10 किलोमीटर तक के लोग होते हैं। उनका एक रिश्ता होता है। वह अपने शासक को देख सकते हैं, जानते हैं। ताकत और दूरी किसी भी रिश्ते को मजबूत करती है। यही साकारात्मक निर्णय का कारण भी बनता है। 

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