Friday, July 6, 2012

मनवाधिकार हर जाति का हक़ है

वर्ण और जाति व्यवस्था की नीव तो सैकड़ो सालो पहले ही पड़ गई थी जिसका भुगतान आज उनकी पीढ़ी कमजोर, दलित लोगों को करना पड़ रहा है। जाति व्यवस्था के नाम पर लोग अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए है। आजादी के बाद की स्थिति और भी दयनीय होती जा रही है। जाति प्रथा के खिलाफ मानव अधिकार के लिए संघर्ष जारि रखते हुए  वाराणसी में डा. लेनिनि रघुवंशी और उनकी पत्नी श्रुती ने मिलकर 1996 में पीवीसीएचआर मानव अधिकार जननिग्रनी समीति और तीन साल बाद जन मित्र न्यास संस्था स्थापित किया। यहां महिलाओं, बच्चों, दलितों और आदिवासियों के लिए काम किया जाता है। इन कमजोर वर्ग को कानूनी तौर पर न्याय दिलाना और समाज में आगे लाना उनके अधिकारों का हनन होने से बचाना इनका मुख्य मकसद है। पीवीसीएचआर द्वारा एक स्कूल भी चलाया जाता है भगवानंला नाम से। भारत में लगभग 160 मिलियन लोग दलितों की श्रेणी में आते हैं।
संस्था द्वारा बुनकरों की हालत में सुधार लाने के लिए भी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आवाज उठाते हैं। लेनिन के सफल कार्यों के लिए इन्हें विभिन्न अवार्डो से नवाजा गया है। 2010 में जर्मनी द्वारा अतंरराष्ट्रीय मानव अधिकार अवार्ड दिया गया। इनका कहना है कि समस्या हमारे पास ही है तो समाधान भी हमें ही करना होगा। इन सबके लिए जरूरी है इनका शिक्षित होना। जब तक यह अपने अधिकारों के बारे में जानेंगे ही नहीं तब तक आगे बढ़ने की कोशिश भी नहीं कर पाऐंगे। एक उच्च और सक्रिय नेटवर्क के माध्यम से इन पीडि़तों को मदद करने का सार्थक प्रयास किया जा रहा है। ताकि इनको अछुत न समझा जाए। बुनकरों, बंधुआ मजदरों आदि का शोषण न हो, इनको न्याय दिया जाए। शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं पर इन्हें भी हक मिलना चाहिए।
केवल सरकार द्वारा आरक्षण देने से ही भला नहीं हो सकता क्योंकि इसका लाभ भी कुछ पहुंची हुई जातिया ही उठा पाती है उनका क्या जो आज भी समानता की नजर से दूर है। उत्तर भारत सबसे बुरी स्थिति में रह रहे मुसहर जनजाति की बात करें तो उन्हें अछुत ही माना जाता है। जबकि भरतीय कानून के अनुसार अछुत कहना भी अपराध है। लगभग 5-7 लाख मुसहर सिर्फ उत्तर प्रदेश में हैं। जिसपर लेनिन ने रिसर्च किया है। सोनभद्र क्षेत्र में 12वीं सदी से रहने वाले घसिया आदिवासियों को पलायन करने पर सरकार और उद्योगपतियों ने मजबूर कर दिया। उसी समुदाय की एक 70 साल की बुजुर्ग सोमरी देवी कहती है कि दनके पूवर्ज वही रहते थे। सावा कोदो की खेती करते थे। लेकिन हमें हमारे ही स्थान से भगा दिया गया। आज दो वक्त की रोटी भी नहीं मिल पाती है। किसी प्रकार की कोई सरकारी या गैर सरकारी सहायता हमें नहीं प्राप्त है। सिंगरौली से पलायित हुए आदिवासियों की दशा भी ऐसी ही है। उत्तर प्रदेश में अपने ही अधिकारों से अछुते आदिवासी जाति करवार, गोंड, चेरों, कोल, भुइया, बैगा, धारखार, पनिका, पत्थरी, परहिया, घसिया, अगरिया आदि को खाने का निवाला जुटाना ही मुश्किल हो जाता है कितनी ही मौते कुपोषण और शोषण के कारण हो जाती है। फिर वह आरक्षण जैसे मुद्दे को कैसे समझ सकते हैं। इस संस्था और दूसरे एनजीओ की मदद से इन्हें वह सारी सुविधाएं देने का प्रयास किया जा रहा है जिससे इनके बच्चे पढ़े, इनकी संस्कृति को बचाया जा सके। करमा नृत्य महोत्सव को फिर से शुरू किया गया।
राज्य और केन्द्र दोनों सरकारे इन जातियों को पलायन करने पर मजबूर तो करती है लेकिन यह भूल जाती है कि अब इनका क्या होगा। इनकी पारंपरिक विरासत छिनने के बाद इनको अधिकार का क्या? इस बाबत जब संस्था ने काम करना शुरू किया तो बहुत सी पुलिसिया और सरकारी अड़चने सामने आई। लोगों ने लेनिन और उनके साथियों के खिलाफ लोगों को भड़काने का आरोप भी लगाया। फिर भी एक संस्कृति को बचाने की कोशिश जारि रहीं और आगे भी इनके हक के लिए लड़ाई चलती रहेगी। मुद्दा मानव जाति का है तो सचेत होना भी आवश्यक है।

सुषमा सिंह, वाराणसी

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