Thursday, May 6, 2010

माँ गंगा की दुर्दशा

हे माँ गंगे
तुम क्यो सूख रही हो?
हे पाप नाशीनी,
मोक्ष दायनी क्यो सूख रही हो?
जहां बहती थी
निर्मल जलधारा|
वहां रेत के टीले क्यों है?
किनारों पर होता था करलव|
वहां पर कांटो के कीले क्यों है?
मां क्या भूल हुयी मुझसे!
जो तुम रूठ चली हो|
इस 'शीतल'
पावन धरती से
जो तुम सूख चली हो|
क्या इतना पाप बड़ा
धरती पर|
जो तुम धुल न सकी हो|
इतना अत्याचार हुआ
जो सह न सकी हो|
हां!
अत्याचार हुआ है|
जो तुमको बांध दिया है|
निर्मल जलधारा क्या है?
गंदे नाले का रूप दिया है|
क्या कल-कल,
छल-छल निर्मल धारा|
कानों में गूंज सुनायेगी|
क्या लहलहाती धारा
फिर से लहलहायेगी|
चन्द जनों की खातिर
तेरा ये हाल हुआ|
करोडों के दिल पर
कठोर घात हुआ|
कहां गयी
वह उज्ज्वल जलधारा|
जो शंकर के जटा से निकली थी|
कहां गयी
वह अमर धारा|
जो ब्रह्मा के कमण्डल से छलकी थी|
हे माँ!
तुम मुझको भुल ना जाना|
इस अनाथ को छोड़
कही दूर न जाना|
तेरा ही है आसरा
तेरा ही है सहारा|
माँ गंगा तुमसे है विनती
बेड़ा पार लगाना|

2 comments:

  1. मां गंगा भी कितना झेले..अच्छी रचना.

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  2. bahut achchi kavita hai......

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